कविता- "धर्म और मजहब पागलपन है" -संतोष शाक्य


नदी की लहर सा जीवन है, तेरा भी और मेरा भी 
खुली दोपहर सा जीवन है, तेरा भी और मेरा भी 


भरा इच्छाओं से यह मन है, तेरा भी और मेरा भी 

यही तो सिर्फ एक बंधन है, तेरा भी और मेरा भी


धर्म और मजहब पागलपन है, तेरा भी और मेरा भी 

वरना एक मिट्टी, एक आंगन है, तेरा भी और मेरा भी


बीतना दुख में यह जीवन है, तेरा भी और मेरा भी 

ध्यान दुख मुक्ति का साधन है, तेरा भी और मेरा भी


~ संतोष शाक्य

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