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kabirdas tulsidas |
तुलसीदास जिन राम की कहानी लिख रहे हैं वह बाल्मीकि द्वारा लिखे गए एक ग्रंथ के मुख्य पात्र है, जिन्हें रामचंद्र या श्रीराम के नाम से तुलसीदास जी बुलाते हैं. तुलसीदास जी अपनी पुस्तक में उनका खूब गुणगान करते हैं. तुलसीदास जी अपने ग्रंथ में नारी व सूद्र आदि की खूब आलोचना करते हैं और ब्राह्मणों की खूब प्रशंसा करते हैं. गुण हीन ब्राह्मण को भी पूजनीय बताते हैं.
परंतु जब कबीरदास और रविदास कहते हैं कि राम को पाना है तो वह बाल्मीकि या तुलसीदास वाले राम की बात बिल्कुल नहीं कर रहे हैं.
कबीरदास और रविदास का "राम" शब्द का प्रयोग करने से अभिप्राय "आनंद" शब्द से है. राम शब्द मूलत: पाली प्राकृत के शब्द "रमा" , "रम्मा" , "राम:" या "रामा" से बना है, जिसका पालि या मागधी प्राकृत भाषा में अर्थ है "आनन्द". संस्कृत में भी यह शब्द पाली प्राकृत से आया है और पहले यह अपना मूल अर्थ ही रखता था, परंतु जब शुंग काल में बाल्मीकि ने अपना ग्रंथ रामायण लिखा, उसके बाद यह शब्द अपना मूल अर्थ खो बैठा. जब भी कोई राम का इस्तेमाल करता है तो शब्द को सीधे बाल्मीकि रामायण के चरित्र राम से जोड़ दिया जाता है. जबकि उसके मूल अर्थ "आनंद" से नहीं जोड़ा जाता.
प्राकृत-पाली से जब संस्कृत बनी तो संस्कृत आम जन की भाषा कभी नहीं थी. सच तो यही है कि अपभ्रंश भाषा सीधे पाली-प्राकृत का ही विकसित रूप है. अपभ्रंश में भी राम का अर्थ "आनंद" था और उसके बाद जन्मी ब्रज और अवधी में भी राम का अर्थ "आनंद" ही था.
कबीर और रैदास संस्कृत नहीं जानते थे तो यह बात बिल्कुल गलत है कि उन्होंने राम का इस्तेमाल बाल्मीकि रामायण के राम के लिए किया, कबीर और रैदास ने "राम" शब्द का इस्तेमाल आनंद के लिए किया है.
राम को पाने का अर्थ, आनंद को पाने से है और राम में रम जाने का अर्थ, आनंद में रम जाने से है. इस शब्द का बाल्मीकि रामायण के राम से कोई लेना देना नहीं है.
भारत के लोग भी जब एक दूसरे को "राम-राम" कहते हैं तो उनका अभिप्राय भी रैदास और कबीर वाला ही होता है अर्थात उनका अभिप्राय "आनंद" होता है न कि तुलसीदास वाले राम.
ब्राह्मण धर्म के पंडे पुरोहित शब्दों को घुमाने फिराने में बहुत माहिर है यहां भी उन्होंने राम शब्द जिसका अभिप्राय "आनंद " के लिए था, उसको ले जाकर बाल्मीकि के राम से जोड़ दिया और रैदास, कबीर, नानक, जैसे हजारों संतों ने जिस राम शब्द का प्रयोग "आनंद" को पाने से के लिए किया था, उसको पूरी तरह अर्थहीन कर दिया.
कई बार संत परंपरा के संत "राम" शब्द का प्रयोग परमानंद के लिये भी करते हैं, कोई दफा सृष्टि के उस तत्व के लिये जिससे सबकुछ उपजा है पर तुलसी के राम के लिये कभी नहीं करते. हम सबको मनुवंशियों के इस षडयंत्र को समझना होगा.
कई बार संत परंपरा के संत "राम" शब्द का प्रयोग परमानंद के लिये भी करते हैं, कोई दफा सृष्टि के उस तत्व के लिये जिससे सबकुछ उपजा है पर तुलसी के राम के लिये कभी नहीं करते. हम सबको मनुवंशियों के इस षडयंत्र को समझना होगा.
-संतोष शाक्य, लेखक
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