अब न कोई खंजर चलना चाहिये- कविता- संतोष शाक्य

प्रेम का सागर उछलना चाहिये
अब न कोई खंजर चलना चाहिये
बहुत लड़ लिये मजहब़ के नाम पर
फिर से दिल में बुद्ध पलना चाहिये

नफरतों का ताप ढ़लना चाहिये
घृणा द्वेष पाप जलना चाहिये
हम न जाने कहां आकर गिर गये
अब हमें फिर से संभलना चाहिये

अशोक चक्र मन में चलना चाहिये
ज्योतिबा की ज्योति जलना चाहिये
नारी में मां सावित्री फुले पलना चाहिये
सब बेटियों को स्कूल चलना चाहिये

समता करूणा ध्यान बचना चाहिये
बुद्ध, महावीर का ज्ञान बचना चाहिये
शाहू शिवाजी का प्रमाण बचना चाहिये
अंबेड़कर का संविधान बचना चाहिये

ऊंच नीच खत्म होना चाहिये
मनुवाद भस्म होना चाहिये
जिससे मानव मानव बन सके
ऐसी कोई कसम होना चाहिये

-संतोष शाक्य, लेखक & कवि

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