वर्णव्यवस्था को कदमों तले रौंद डालना चाहिए - स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद वेदांती थे.. वैदिक नहीं.. वेदांत वेद के विपरीत है.. वेदांत का अर्थ है.. "वेद का अंत"

वेद ईश्वरवादी है और वेदांत अनीश्ववादी.. वेद ईरानी धर्म शास्त्र अवेस्ता से विकसित हुआ है और वेदांत कहीं न कहीं श्रमण बुद्ध और श्रमण महावीर के ज्ञान से विकसित हुआ है. 

हालांकि वेदांत को भी वर्ण व्यवस्था के समर्थकों ने बहुत दूषित किया है जैसा कि उन्होंने हर आध्यात्मिक परंपरा के साथ किया है.

हर आध्यात्मिक परंपरा की पुस्तकों में पंडा-पुरोहित वर्ग ने अपनी कामचोर संतानों के फायदे के लिए वर्ण श्रेष्ठता, पुरुष श्रेष्ठता और पुजारी श्रेष्ठता जैसी बातें घुसाईं हैं ऐसा ही वेदांत के साथ भी किया गया है.

रामकृष्ण परमहंस से संन्यास लेकर आध्यात्मिक मार्ग पर चलने आए स्वामी विवेकानंद को भी इस तरह की सामाजिक कुटिलताओं का सामना करना पड़ा. दूषित सामाजिक वर्ण व्यवस्था के सबसे बड़े ठेकेदार शंकराचार्य ने स्वामी विवेकानंद को "तथाकथित हिंदुत्व" का प्रवक्ता मानने से ही इंकार कर दिया.

जब विवेकानंद "विश्व धर्म संसद, शिकागो" अमेरिका में बोलने वाले थे तब ही शंकराचार्य ने उन्हें "तथाकथित हिंदुत्व" का प्रवक्ता मानने से इनकार कर दिया. शंकराचार्य ने कहा कि तुम वर्णव्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर हो, चतुर्थ वर्ण के हो, इसलिए तुम हमारे धर्म के प्रवक्ता नहीं हो सकते, स्वामी विवेकानंद बहुत निराश हो गए. 

तब स्वामी विवेकानंद को एक बौद्ध भिक्षु अनागरिक धम्माल जो कि श्रीलंका के थे, भारत में ही निवास करते थे (भिक्षु अनागारिक धम्मपाल भी "विश्व धर्म संसद" में अपना वक्तव्य देने पहुंचे थे) ने अपने समय में से 5 मिनट का समय दिया और विश्व धर्म संसद से अनुरोध किया कि स्वामी विवेकानंद जी को बोलने दिया जाए.

विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने महान भारतीय बौद्ध भिक्षु नागार्जुन के शून्यवाद के सिद्धांत पर अपना प्रवचन किया. उसके बाद उन्ही धूर्तों ने स्वामी जी की प्रशंसा की, जो स्वामी जी को धर्म का प्रवक्ता मानने से ही इंकार कर रहे थे.

विश्व धर्म संसद से लौटने के बाद विवेकानंद ने लिखा कि "वर्णव्यवस्था को कदमों तले रौंद डालना चाहिए जो हम भारतीयों के बीच ही भेदभाव पैदा करती है."

मैं समझता हूं कि यही स्वामी विवेकानंद के जीवन का सबसे बड़ा संदेश है कि "वर्ण व्यवस्था को कदमों तले रौंद डालना चाहिए जो हम भारतीयों के बीच ही भेदभाव पैदा करती है."

सभी भारतवासियों को भिक्षु अनागारिक धम्मपाल जी का बहुत-बहुत आभारी रहना चाहिए जिनके कारण स्वामी विवेकानंद जी को विश्व धर्म संसद में बोलने का अवसर मिला और वे अपनी कुछ बातें वहां रख सके.

हालांकि भिक्षु अनागारिक धम्मपाल जी भी उतने ही भारतीय थे.. जितने की स्वामी विवेकानंद जी.. क्योंकि वे अपने पूरे जीवन भारत में ही रहे.

स्वामी विवेकानंद जयंती पर स्वामी विवेकानंद और भिक्षु  अनागारिक धम्मपाल दोनों को ही मैं नमन करता हूं.

खेतड़ी के महाराज को भी नमन.. जिन्होंने नरेंद्रनाथ को विवेकानंद नाम दिया और खुद के खर्चे से शिकागो भेजा..

स्वामी विवेकानंद की जयंती.. राष्ट्रीय युवा दिवस के अवसर पर समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं..

~संतोष शाक्य, लेखक

Post a Comment

0 Comments