हम तो कहते हैं कि भारत में आटा 22 रू. प्रति किलो नहीं बल्कि 100 रू. प्रति किलो बिकना चाहिये.
चावल 50 रू. प्रति किलो नहीं बल्कि 200 रू. प्रति किलो बिकने चाहिए.
दाल ₹300 प्रति किलो और राजमा ₹500 प्रति किलो बिकना चाहिये.
किसान को बस उसका न्यूनतम समर्थन मूल्य दे दो. उसके बाद आटा, दाल, चावल जितना चाहो उतनी रेट पर बेचो.
सभी फसलों की भंडारण सीमा भी खत्म कर दो, फिर जरूरी वस्तुओं के भाव जितना बढ़ें, बढ़ जाने दो. हमें कोई दिक्कत नहीं है.
आम आदमी और नौकरशाह को एहसास तो हो कि किसान ने पिछले 70 सालों में कितना झेला है.
सरकार लगातार किसान की फसलों के भाव अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए नियंत्रित करती रही जैसे ही दाल, आटा, चावल के भाव बढ़ते सरकार हस्तक्षेप कर कर भाव पर रोक लगा देती. जबकि दूसरी तरफ लोगों की सैलरियां और बाजार की अन्य वस्तुओं के भाव बेलगाम बढ़ते रहे हैं.
1980 में सभी सरकारी कर्मचारी साइकिलों से नौकरी करने जाते थे. आज इन्हीं लोगों ने किसानों की आय का गला घोंट कर लंबी-लंबी कारें खरीद लीं और कर्ज में डूबकर किसान की बैलगाड़ी भी बिक गई.
दूसरी तरफ धूर्त व्यापारी वर्ग है जो निजी क्षेत्र में न्यूनतम समर्थन मूल्य ना होने की वजह से किसान की फसलें ओने पौने दामों में खरीदता है और बाद में उसे ही बड़ी कीमत पर बेचता है.
नेताओं को, सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को हर महीने निश्चित सैलरी चाहिये. व्यापारी को हर सीजन पर मोटा मुनाफा चाहिए. इनके बच्चों के लिए विशेष विद्यालय हैं, इनको टीए दिया जाता है, डीए दिया जाता है और भी बहुत सी विशेष सुविधाएं दी जाती है.
तो क्या किसान को अपने बच्चे नहीं पढ़ाने हैं उसके बच्चों के लिए कोई विशेष स्कूल नहीं चाहिए क्या उसे विशेष सुविधाएं नहीं चाहिए.
बिहार में किसान औसत आय केवल ₹42000 प्रति वर्ष है, इसमें वह क्या खाएगा, क्या पहनेगा और क्या ओढेगा और कैसे अपने बच्चों को पढ़ाएगा. इसका जवाब सरकार देना चाहिये.
दूसरी बात है कि हमें कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग नहीं चाहिए हम अपनी जमीन किसी भी कंपनी को किसी भी तरह के अनुबंध पर नहीं देना चाहते.
कंपनी राज में एक बार हम अंग्रेजों का शासन देख चुके हैं हम फिर से कंपनी राज नहीं चाहते.
~संतोष शाक्य
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